आंटी 4- अमूमन पूरी दिल्ली के हर इलाके में लगने वाले साप्ताहिक सब्ज़ी बाज़ार में बहुत भीड़ रहती है। यहाँ लोगों को कई फायदे एक साथ हो जाते हैं। सप्ताह भर की सब्ज़ियाँ एक स्थान पर कम दाम में मिल जाती हैं और यह बाज़ार घर के नज़दीक लगने के कारण अधिक सामान लेकर जाने में खास परेशानी नहीं होती। कई बार सब्ज़ियों, फल के अलावा और भी बहुत कुछ मिल जाता है यहाँ। मध्यमवर्गीय नौकरी पेशा और गृहिणियों के लिए तो इस तरह के बाज़ार वरदान जैसे होते हैं। यहाँ महिलाओं एवं पुरुषों का बड़े-बड़े थैले लिए खरीदारी करते हुआ दिखना एक आम बात है। सड़क के एक ओर पंक्ति से कई गाड़ियाँ खड़ी थीं और उसके बाद दोनों ओर सब्ज़ीवालों की रेहड़ियाँ और उन पर लगी भीड़। खचाखच भरे बाज़ार से यातायात का आवाग़मन भी लगातार जारी था। एेसे में एक गाड़ी लगातार हॉर्न बजाते हुए अपने लिए निकलने का स्थान बनाने लगी। गाड़ी भी कोई एेसी-वैसी नहीं, बड़ी वाली ‘पजेरो’ सो वहाँ से सही सलामत निकलने के लिए स्थान भी अधिक ही चाहिए था। एक जगह पर लगातार हॉर्न बजाने पर भी साइड मिलते न देख गाड़ी चलाने वाले व्यक्ति ने बाहर झाँककर देखा। एक दुबली-पतली आंटी जी ने अपने दायें कंधे पर एक बड़ा-सा कपड़े का थैला लटका रखा है, जिसमें से लौकी बाहर झाँक रही थी कि आखिर उसे खरीदने वाला है कौन? बाहर से देखने से थैले में करीब 5-6 किलोग्राम के वज़न का अंदाज़ा हो रहा था, अंदर का कह नहीं सकते। एक हाथ में टमाटर और खीरे की थैलियाँ, दूसरे में बड़े-से तरबूज की थैली। गाड़ीवाले व्यक्ति ने बड़ी लापरवाही से उन्हें साइड होने का संकेत किया और गाड़ी आगे बढ़ाने की तैैयारी करने लगा पर वह यह भूल गया कि उसका सामना आंटी जी से हुआ है। वह अपनी जगह से हिली तक नहीं। अब गाड़ीवाला आदमी बाहर आकर आंटी जी को वहाँ से हटने के लिए कहने लगा। वह थोड़ा साइड हो गई तो गाड़ीवाला ज़मीन पर पड़े दो थैले दिखाते हुए बोला कि माताजी इन्हें तो हटा लीजिए। आंटी जी ने अपना चश्मा ठीक करते हुए उसे अच्छे से देखा, फिर बोली कि तुमने मुझे हटने के लिए कहा था तो मैं हट गई, थैलों का मुझे नहीं पता, इन्हें भी कहकर देख लो शायद हट जाए। पास खड़े सब्ज़ीवाले और ग्राहकों को इस बात पर हँसी आ गई। गाड़ीवाला थोड़ा सकपकाया और बोला कि क्या मतलब? आंटी जी ने पूछा कि तुम्हारी आँखें ठीक हैं? उसने कहा-हाँ। आंटी जी बोली कि बेटा, मुझे नहीं लगता कि तुम्हें ठीक से दिखता है। मेरे दोनों हाथों में सामान देखकर भी तुम मुझे इन्हेें (आँखों से नीचे थैलों की ओर संकेत करते हुए) हटाने के लिए कह रहे हो। यह सुनकर गाड़ीवाले को जाने क्या सूझा कि वह पैर से थैलों को धकेलने ही वाला था कि वह गरजी-ऐ! सब्ज़ी है इसमें, खबरदार जो पैर लगाया तो। तभी पीछे से एक स्कूटर सवार चिल्लाया कि ओ भाई! गाड़ी जल्दी निकालो, सारा रास्ता रोक रखा है। गाड़ीवाला अच्छा फँस गया बड़ी गाड़ी लेकर वापस पीछे जाने में खतरा है और आगे आंटी जी। आंटी जी तटस्थ भाव से खड़ी थी। कोई चारा न देखते हुए उसने आगे बढ़कर स्वयं दोनों थैले उठाकर साइड में रख दिए और चला गया। आंटी जी ने एक रिक्शा रोका और उस पर अपना सामान लदवाकर चलने को हुई तो रिक्शेवाला बोला कि आंटी जी अगर आप पाँच मिनट रुके तो मैं बच्चों के लिए संतरे खरीद लाता हूँ। आंटी जी ने 'हाँ' में सिर हिला दिया पर रिक्शेवाला अभी भी उन्हें देख रहा था। तब उन्होंने उसे भरोसा दिलाते हुए कहा कि बेफिक्र होकर जाओ, मेरे होते तुम्हारे रिक्शे को कुछ नहीं होगा। यह सुनकर वह मुसकराते हुए चला गया।
अजब-गज़ब किस्से
Kisse, kahaniya in Metro Rail, short incidents turned into stories,
Thursday, April 25, 2019
Sunday, April 14, 2019
An Invigilation Day
Room No : ........
कक्षा IX - कैमेस्ट्री, कक्षा IX - गणित
कक्षा VIII - कंप्यूटर, कक्षा VI - सामाजिक विज्ञान
स्कूली परीक्षा के लिए चालीस छात्र एक कमरे में बैठाना वह भी चार अलग-अलग कक्षाओं के दस-दस छात्रों को जाने किस खुराफाती दिमाग की उपज है। उस पर क्या मेल करके बैठाया है। ग्यारहवीं कक्षा के लड़कों के साथ आठवीं की लड़कियाँ और नौवीं कक्षा की लड़कियों के साथ छठी के लड़के। बड़े हो या छोटे लड़के बिना बवाल किए नहीं रहते। परीक्षा ठहरी तीन घंटे की। आरंभिक डेढ़ घंटा परीक्षा की औपचारिकताओं एवं विद्यार्थियों के आत्ममंथन का होता है। यह समय हर निरीक्षक के लिए सुकून भरा या कहें कि नींद भरा होता है क्योंकि सारे परीक्षार्थी अपने में मग्न होते है, जिसे जितना आता है, करता है। कहानी तो मध्यांतर के बाद शुरू होती है। आठवीं कक्षा की कंप्यूटर की परीक्षा समय से पहले ही समाप्त। यानि तीन घंटे का पेपर डेढ़ घंटे में पूरा। वह भी एक, दो नहीं पूरा आठ छात्राओं का। प्रश्न-पत्र तैयार करने वाले को थोड़ा तो परीक्षक का भी ध्यान रखना चाहिए था। छात्र केंद्रित शिक्षा व्यवस्था की यही सबसे बड़ी समस्या है। अब छात्राओं का समय कैसे गुज़रे। उधर छठी के लड़के भी ताक में हैं कि कब मौका मिले और कुछ मदद मिले। किसी को प्रश्न-पत्र मेज़ से नीचे गिरने के लिए तो किसी को पैन से आवाज़ करने के लिए मना किया जा रहा है। इनके चेहरों और हरकतों से लगता है कि इनके लिए सामाजिक विज्ञान, ज्ञान का नहीं सिर दर्द का विषय है। कितनी बार डाँटा पर असर नहीं। सामने की पहली सीट पर बैठा ग्यारहवीं का छात्र अपना पेपर छोड़कर साथ बैठी आठवीं की छात्रा को जाने क्या समझा रहा है पर वह कोई रुचि नहीं दिखा रही, बेचारी मुँह बनाकर बस जुनियर होने के नाते उसे झेल रही है। जी में आया कि उससे कहूँ बेटा टीचरगिरी छोड़कर पेपर पूरा करने पर ध्यान दे। जब वह नहीं मानता दिखा तो यहाँ हस्तक्षेप करना आवश्यक हो गया। मैंने छात्र से पूछा कि क्या हो रहा है तो उसने न में सिर हिला दिया। मैंने हिदायत दी कि अपने पेपर पर ध्यान दो तो तपाक से बोला, हो गया। मैंने पूछा-पूरा, उसने फिर न में सिर हिला दिया और मुसकराकर बोला कि तीन प्रश्न नहीं आ रहे, आप थोड़ा बता दो, मैंने उसे घूरकर देखा तो उसने सिर झुका लिया। साथ बैठी लड़की को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ा, वह बैठी-बैठी ऊब रही है। आखिरी सीट पर बैठा छात्र लिखते हुए खड़ा हो गया। मैंने उसे बैठने का संकेत किया तो वह बैठ गया। जब दूसरी बार वह खड़ा हुआ तो मुझे लगा कि शायद वह कुछ गड़बड़ कर रहा है। मैंने उसे डाँटते हुए कहा कि तुम नकल कर रहे हो क्या। उसने घबराकर कहा कि नहीं। मैंने उसके हाथ से नक्शा लेकर देखा, वह कोरा था, शब्द तो दूर कहीं पेन्सिल का कोई निशान तक नज़र नहीं आया। आंसर शीट भी देखी पर नकल जैसा कुछ नहीं दिखा। मेरा संदेह व्यर्थ निकलता देख मैंने कहा कि तुम खड़े क्यों हो जाते हो? उसने कहा कि खड़े होकर लिखने से लिखने की गति तेज़ हो जाती है। मैंने साथ बैठी छात्रा को उम्मीद भरी नज़रों से देखकर कि शायद वह मेरा साथ दे, पूछा कि तुम्हें इसके खड़े होने से कोई परेशानी है पर उसने भी न में सिर हिला दिया। अब करना क्या था मैंने लड़के खड़े न होने के निर्देश के साथ बैठने को कहा। सामने से दायीं ओर तीसरी सीट का दृश्य कुछ अलग है। ग्यारहवीं का छात्र अपनी कमिस्ट्री की परीक्षा में रमा हुआ है, वह इतना रमा है कि लिखते समय उसकी उंगलियों के साथ मुँह भी 35 डिग्री तक टेढ़ा हो जाता है। इसे देखकर लगा कि कहीं तेज़ी से लिखते समय मेरा मुँह भी...इस पर ध्यान देना पड़ेगा। साथ बैठी छात्रा उसके पेपर में ताँक-झाँक कर कही है और यह करते हुए वह आधी से ज़्यादा सीट घेर चुकी है, मुझे डर है कि कहीं यह थोड़ा और आगे खिसक गई तो वह बेचारा गिर ही न जाए। तभी नौवीं की एक छात्रा साथ बैठे हुए लड़के पर चिल्लाई कि ठीक से बैठ, अबकी बार हिला न तो देख। मैंने पूछा कि क्या हुआ तो उसने बताया कि कब से यह हिल रहा है, कभी दायें तो कभी बायें, मैंने इसे ठीक से बैठने के लिए कहा पर यह मान नहीं रहा, मेरा पूरा डायग्राम खराब करवा दिया है। मैंने लड़के से पूछा कि क्या बात है? ठीक से बैठा नहीं जा रहा। उसने कहा मैम मैं तो ठीक से ही बैठा हूँ, बस मेरे हाथ से दीदी की शीट हिल गई। मैंने उसकी आंसर शीट ली और खोलकर देखा तो बहुत कम प्रश्नों के उत्तर ही लिखे थे। मैंने उससे कहा अभी तो बहुत से प्रश्न रहते हैं, करते क्यों नहीं, अब क्या किताब लाकर सामने रखी जाए, तब करोगे। उसने धीमे से हँसते हुए कहा कि मैम मेरा लिखने का मन नहीं है। यह सुनकर गुस्सा तो बहुत आया कि बेचारे अध्यापकों का रिज़ल्ट खराब करने की हद ही हो गई। फिर उससे पूछा कि जो लिखा है, उससे पास हो जाओगे तो उसने हाँ में सिर हिला दिया। एक छात्रा अतिरिक्त शीट और बाँधने के लिए धागा लेने के लिए आई। मैंने उससे पूछा तुम्हारा तो कंप्यूटर का पेपर हो गया है, फिर ये किसलिए चाहिए? उसने अपने साथ बैठे लड़के की ओर संकेत करते हुए कहा कि भैया ने कहा है, लाने के लिए। मैं समझ गई कि यह खुद भी खाली बैठे परेशान हो गई होगी और अब सीट से उठने का मौका मिल गया है। मैंने उसे कहा कि तुम जाओ, जिसे चाहिए, वह स्वयं आकर ले। वहीं दूसरी ओर छठी का एक छात्र नक्शेे को आंसर शीट के बीच में रखकर उन्हें धागे से बाँधने के लिए पेन से छेेद करने की नाकाम कोशिश कर रहा है। साथ बैठी छात्रा समझ गई कि यह काम उसके वश का नहीं है। उसने उसके हाथ से आंसर शीट ली या कहें कि लगभग छीन ली और प्रकार (कंपस) से उसमें छेद करके धागे से बाँधकर फिर से अपने सवालों में उलझ गई। मैं खुद हैरान हूँ कि इन बच्चों ने तीन घंटे की परीक्षा में मुझे कितनी कहानियाँ दे दी हैं।
Tuesday, April 2, 2019
गज़ब आंटियाँ-2
आंटी 3 - दिल्ली की लो फ्लोर बस सवारियों से ठसाठस भरी थी। उस पर भी हर स्टॉप से लोग बस में सवार होते जा रहे थे। रूट बहुत लंबा था तो ज़्यादातर सवारियों की कोशिश यही थी कि कैसै भी करके बैठने के लिए सीट मिल जाए। ज़्यादातर महिलाएँ आरक्षित सीटों पर ही बैठने की कोशिश करती हैं। एक आदमी पहले से महिला आरक्षित सीट पर विराजमान था और उसने अपनी आँखें जान बूझकर बंद कर रखी थीं या वह सच में सोया था, यह वही जाने। एक लड़की ने उस आदमी को उठने के लिए कहा तो उसने पहले लड़की को देखा फिर इधर-उधर नज़र घुमाई और आँख बंद करके सो गया। तभी भीड़ में खड़े होने के लिए जगह बनाती हुई एक लंबी व पतली आंटी जी उस आदमी से बोली बेटा तबीयत खराब है क्या? पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। तब आंटी जी उस लड़की को लगभग डाँटते हुए ऊँचे स्वर में बोली, अपनी आँखों की जाँच करा लो, तुम्हें ठीक से दिखता नहीं है, चश्मा लगाया करो। लड़की को उनकी बात अखरी पर इससे पहले कि वह कोई जवाब देती, आंटी जी फिर बोली कि लेडिज़ सीट पर लेडिज़ ही बैठती है। ध्यान से देख यह आदमी नहीं औरत ही है। केवल दिखने और वेशभूषा से कोई आदमी थोड़े होता है। आदमी होता तो लेडिज़ सीट पर क्यों बैठता? पक्का यह औरत ही है। आंटी जी की यह बात सुनते ही उस आदमी ने आँखें खोली तो उन्होंने ऊपर लिखे केवल महिलाएँ की ओर संकेत किया और बोली बेटा तुम लेडिज़ ही हो न। सोने का नाटक करने वाला वह आदमी सीट छोड़कर खड़ा हो गया। वह समझ गया था कि उनके कटाक्ष के सामने उसका अभिनय बेअसर है। सीट खाली होने पर लड़की ने आंटी जी को बैठने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि तुम थकी हुई लग रही हो इसलिए बैठ जाओ। तभी पीछे से कंडक्टर महाशय, जो अब तक चुप थे, उनकी आवाज़ आई कि बस में बहुत भीड़ है। यह तो लड़की है, खड़ी हो जाएगी। आप बुज़ुर्ग हैं, बैठ जाइए। आंटी जी झट से उससे बोली कि आजकल का जो खानपान है। उसके हिसाब से बुड्ढे-जवान सबकी सेहत एक जैसी है। उनकी इस बात पर सब हँस दिए। आंटी जी का बड़बोलापन, तेज़ दिमाग और हाज़िर-जवाबी देखकर मेरे मन ने कहा वाह! क्या बात है।
Thursday, March 21, 2019
गज़ब आंटियाँ
आंटी 1 - हाथ देकर आंटी ने रिक्शा रकवाया। आवाज़ बिलकुल पतली। उम्र 58-60 के लगभग। आंटी जी ने पिंक और ग्रे रंग का गर्म सूट पहना था। मासूम चेहरा उस पर रंग दूध-सा गोरा। सूट के रंग से मिलती हल्की पिंक लिपस्टिक और बिन्दी, आँखों में काजल लगाए हुए। मेरा ध्यान उनके बालों और पर्स पर ही अटक गया। हाथ में चमकता गोल्डन पर्स और माथे तक आईं लेज़र कट की लटें उन पर ख़ूब जँच रही थीं। उन्हें देखकर लग रहा था कि वे ज़िंदगी को लेकर बहुत सक्रिय हैं और अपने हिसाब से जीना जानती हैं। जाने क्यों उनमें मुझे गुज़रे ज़माने की प्रसिद्ध नायिका साधना की छवि दिखाई दी। नवंबर का महीना और शाम का समय होने से हवा ठंडी हो चली थी। आंटी जी दोनों हाथ बाँधकर सिकुड़कर बैठ गईं, फिर मेरी ओर देखकर बोली पैदल चलने पर इतनी ठंड नहीं लगती, जितनी रिक्शे में सीधी हवा लगने से लगती है पर मौसम अच्छा हो गया है। मैंने हाँ में सिर हिला दिया। फिर मुझसे पूछा कि मैं कहाँ जाऊँगी और बताया कि उन्हें शुगर है। कल टेस्ट करवाया था, उसी की रिपोर्ट लेने जा रही हैं। इसी बहाने उनका घर से निकलना भी हो जाता है। फिर वे ठंडी हवा का आनंद लेने लगी। मुझे आंटी जी का व्यक्तित्व और उनकी चपलता दोनों बहुत आकर्षक लगे। wow से बढ़कर अगर कुछ होता है तो वही।
आंटी 2 - नई दिल्ली मैट्रो स्टेशन से आंटी जी ने अपने नाती (उम्र 16-17 वर्ष के आसपास) के साथ मैट्रो के पहले कोच में प्रवेश किया। सारी सीटों पर महिलाएँ और लड़कियाँ बैठी थीं, केवल एक ही सीट खाली थी। आंटी जी उस पर बैठ गई। लड़का खड़ा था। शायद उसे अब तक यह अहसास नहीं हुआ था कि वह महिलाओं के लिए आरक्षित मैट्रो के पहले कोच में है। आंटी जी के साथ वाली सीट पर बैठी लड़की ने उसे कहा कि वह दूसरे कोच में चला जाए। तब लड़के ने अपने चारों ओर नज़र घुमाई और आंटी जी से बोला कि वह साथ वाले कोच में जा रहा है, वहाँ से उन्हें देखता रहेगा। आंटी जी ने देखा कि वहाँ सीट खाली नहीं है, फिर बोली कि खड़ा तो वहाँ भी रहेगा तो जाकर क्या करेगा। अगले स्टेशन पर मैट्रो की एक महिला कर्मचारी आई और लड़के को दूसरे कोच में जाने के लिए कहा। वह बेचारा जाने ही लगा था कि आंटी जी ने उसका हाथ पकड़कर रोक लिया और सामने बैठे एक बच्चे की ओर संकेत करते हुए बोली कि वह भी तो लड़का है। कर्मचारी बोली, अरे! माताजी वह 12 वर्ष से छोटा है। छोटे लड़के बैठ सकते हैं। आंटी जी अपने नाती की ओर देखकर बोली कि यह कौन सा बड़ा है, 15 का तो है। तब मैट्रो कर्मचारी सख्ती दिखाते हुए बोली कि 200 रु जुर्माना देना पड़ेगा। आंटी ने उसे घूरकर देखा और लड़का थैला उठाकर जाने को हुआ। मैट्रो कर्मचारी के बाहर जाते ही गेट बंद हो गया और आंटी जी ने लड़के को जाने से रोक लिया। अगले स्टेशन पर फिर वही किस्सा। आंटी जी का समय प्रबंधन गज़ब का था। वह मैट्रो कर्मचारी को गेट खुले रहने तक बहस में उलझाए रखती, फिर लड़के को जाने का संकेत करती और बाद में रोक लेती। उन्होंने चार बार ऐसा किया। पाँचवें स्टेशन के आते ही चली गई। लड़का हर बार यही कहता कि क्या नानी आप भी। आसपास बैठी सभी महिलाएँ उनकी चालाकी समझ गई थीं। जब तक वे रहीं, मेरे मन में भी यही चल रहा था-क्या आंटी जी आप भी।
Saturday, March 16, 2019
बस यूँ ही
स्टेशन पर मैट्रो का गेट खुला है। एक महिला, उसका 10-11वर्ष का बेटा, बेटी (शायद दो वर्ष की है) और सास आए। मेरी साथ वाली सीट खाली थी, वहाँ सास आंटी जी, जिन्होंने गुलाबी रंग का सूट पहना है, उन्हें बैठाया गया। जैसे ही सामने वाली सीट खाली हुई उस पर बेटा बैठने लगा तो महिला ने कहा कि मैं बैठ जाती हूँ, तुम दूसरे कोच में सीट खाली है, वहाँ चले जाओ। लड़के की हरकतों से लग रहा है कि वह शांत रहने वालों में से नहीं हैं। वह जल्दी से उस सीट तक पहुँचा पर तब तक उस पर एक लड़की बैठ चुकी है। वह वापस आ गया, मुँह बनाकर माँ से कह रहा है कि मुझे कोल्ड ड्रिंक पीनी है। उन्होंने कहा थोड़ी तसल्ली रख और थोड़ा आगे खिसककर उसे बैठने के लिए कहा पर वह नहीं बैठा और मैट्रो में लगे खंभे पर लटककर झूल रहा है। अच्छा हुआ जो इसी समय एक सीट खाली हो गई और लड़का उस पर बैठ गया। थोड़ी जगह उसने अपनी छोटी बहन को भी दे दी है। यहीं से मैंने अपनी नजरें उन पर गढ़ा लीं। आगे की कहानी इस प्रकार है कि महिला ने नीले बेस रंग पर पीले डॉट्स वाला सूट पहना है। मेकअप के नाम पर केवल एक बिंदी और माँग में सिंदूर है। रंग गोरा, वैसे तो चारों का ही रंग गोरा है। महिला देखने में बहुत प्यारी और सुंदर लग रही है बिल्कुल अपनी बेटी की तरह और वह लड़का उधम कर रहा है। तभी सास आंटी जी ने ज़ोर से लगभग मेरे कान के पास चिल्लाते हुए स्टेशन का नाम लिया। मैंने अपना ध्यान वापस सामने की सीट पर लगा लिया है। हाँ तो उस लड़के ने प्लास्टिक के थैले में से एक मिनी कोल्ड ड्रिंक की बोतल निकाली और चिप्स का पैकेट लेकर शुरू हो गया। माँ ने उसे ढक्कन नीचे फेंकने के लिए मना किया और इशारे से थैले में डालने को कहा (मैट्रो में ही सही पर आम लोगों का यह व्यवहार मुझे ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की याद दिला देता है)। दूसरी ओर सास आंटी जी ने फिर ज़ोर से चिल्लाते हुए स्टेशन का नाम लेकर मेरा ध्यान भंग कर दिया। मैंने उनकी ओर देखकर मुँह बना लिया। वैसे तो लड़के के रंग-ढंग मुझे अच्छे नहीं लगे पर वह चिप्स के कुछ टुकड़े अपने हाथ से बहन को भी खिला रहा है, जो मुझे अच्छा लगा। उस प्यारी सी बच्ची ने तोतली आवाज़ में कुछ कहा, जो मुझे समझ तो नहीं आया पर उसकी माँ को आ गया है। वह हँस रही है पर मेरी नज़र उसके चेहरे पर अटक गई है कि कोई बिना मेकअप के इतना सुंदर कैसे दिख सकता है। कुछ तो गड़बड़ है। हाँ, सामने के दो दाँत गायब हैं, दो नहीं तीन। शायद टूट गए हैं। मैं अनुमान लगाने ही लगी थी कि दाँत कैसे टूटे होंगे कि वह फिर ज़ोर से हँसी। इस बार मैंने अपनी जासूसी आँखें उसके मसूड़े में गढ़ा दी। मेरा अनुमान गलत निकला कि उसके दाँत टूट गए हैं। वे टूटे नहीं बल्कि पूरी तरह से निकले नहीं हैं, जैसे कि बाकी दाँत। मसूड़े के नीचे छोटे-छोटे दाँत हैं, जो उसके हँसने पर ही दिखते हैं, बोलने पर नहीं। सास आँटी जी ने फिर से मेरा ध्यान भटका दिया है। गेट से एक दक्षिण भारतीय महिला आई और लड़के के साथ वाली सीट पर बैठ गई है। यह महिला अकसर मुझे मैट्रो में दिखती रहती है। वह भी उस बच्ची से बात करने की कोशिश कर रही है। बच्ची एकटक उसे देख रही है फिर अपनी माँ की ओर देखकर तुतलाते हुए कुछ बोली। मुझे इस बार भी समझ नहीं आया कि वह क्या बोली। दोनों अति सुंदर महिलाएँ उसकी बात पर हँस रही हैं। मैं उन्हें ध्यान से देख रही हूँ। कुछ तो गड़बड़ झाला है। अरे! इस महिला के भी दाँत। सामने से बायीं ओर के दो, हाँ पक्का दो दाँत टूट गए हैं और ये टूटे ही हैं क्योंकि मुझे उसके मसूड़े में कोई दंतीय अवशेष दिखाई नहीं दे रहा है। संयोग देखिये कि इस महिला को तो मैं अकसर देखती रहती हूँ पर इतने ध्यान से कभी नहीं देखा। सास आंटी जी ने इस बार स्टेशन का नाम लेते हुए अपना दायाँ हाथ भी ज़ोर से हिलाया, जो सीधा मेरे बालों पर आकर लगा है। लग रहा है कि बाल फिर से बनाने पड़ेंगे। बहरहाल इस बार चार लड़कियों ने मैट्रो में प्रवेश किया। तीन लड़कियाँ मोबाईल में लगी हैं और एक ने मुँह पर मास्क पहना है। मास्क पहनने का कारण दिल्ली का प्रदूषण हो सकता है या उसका अपना कोई निजी मेजिकल कारण भी या फिर टशन भी। जो भी हो मुझे किसी के दाँत दिखाई नहीं दे रहे हैं। सास आंटी जी को तो आप जान ही चुके हैं, मैं उनके हिलने से पहले ही उठ गई हूँ। मेरा स्टेशन आ गया है। जाते हुए एक बात और उस लड़की का मास्क बहुत सुंदर है। सफ़ेद रंग पर पीली तितलियाँ खिल रही हैं। मैंने ऐसा मास्क पहले कभी नहीं देखा।
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