Thursday, April 25, 2019

गज़ब आंटियाँ-3

आंटी 4- अमूमन पूरी दिल्ली के हर इलाके में लगने वाले साप्ताहिक सब्ज़ी बाज़ार में बहुत भीड़ रहती है। यहाँ लोगों को कई फायदे एक साथ हो जाते हैं। सप्ताह भर की सब्ज़ियाँ एक स्थान पर कम दाम में मिल जाती हैं और यह बाज़ार घर के नज़दीक लगने के कारण अधिक सामान लेकर जाने में खास परेशानी नहीं होती। कई बार सब्ज़ियों, फल के अलावा और भी बहुत कुछ मिल जाता है यहाँ। मध्यमवर्गीय नौकरी पेशा और गृहिणियों के लिए तो इस तरह के बाज़ार वरदान जैसे होते हैं। यहाँ महिलाओं एवं पुरुषों का बड़े-बड़े थैले लिए खरीदारी करते हुआ दिखना एक आम बात है। सड़क के एक ओर पंक्ति से कई गाड़ियाँ खड़ी थीं और उसके बाद दोनों ओर सब्ज़ीवालों की रेहड़ियाँ और उन पर लगी भीड़। खचाखच भरे बाज़ार से यातायात का आवाग़मन भी लगातार जारी था। एेसे में एक गाड़ी लगातार हॉर्न बजाते हुए अपने लिए निकलने का स्थान बनाने लगी। गाड़ी भी कोई एेसी-वैसी नहीं, बड़ी वाली ‘पजेरो’ सो वहाँ से सही सलामत निकलने के लिए स्थान भी अधिक ही चाहिए था। एक जगह पर लगातार हॉर्न बजाने पर भी साइड मिलते न देख गाड़ी चलाने वाले व्यक्ति ने बाहर झाँककर देखा। एक दुबली-पतली आंटी जी ने अपने दायें कंधे पर एक बड़ा-सा कपड़े का थैला लटका रखा है, जिसमें से लौकी बाहर झाँक रही थी कि आखिर उसे खरीदने वाला है कौन? बाहर से देखने से थैले में करीब 5-6 किलोग्राम के वज़न का अंदाज़ा हो रहा था, अंदर का कह नहीं सकते। एक हाथ में टमाटर और खीरे की थैलियाँ, दूसरे में बड़े-से तरबूज की थैली। गाड़ीवाले व्यक्ति ने बड़ी लापरवाही से उन्हें साइड होने का संकेत किया और गाड़ी आगे बढ़ाने की तैैयारी करने लगा पर वह यह भूल गया कि उसका सामना आंटी जी से हुआ है। वह अपनी जगह से हिली तक नहीं। अब गाड़ीवाला आदमी बाहर आकर आंटी जी को वहाँ से हटने के लिए कहने लगा। वह थोड़ा साइड हो गई तो गाड़ीवाला ज़मीन पर पड़े दो थैले दिखाते हुए बोला कि माताजी इन्हें तो हटा लीजिए। आंटी जी ने अपना चश्मा ठीक करते हुए उसे अच्छे से देखा, फिर बोली कि तुमने मुझे हटने के लिए कहा था तो मैं हट गई, थैलों का मुझे नहीं पता, इन्हें भी कहकर देख लो शायद हट जाए। पास खड़े सब्ज़ीवाले और ग्राहकों को इस बात पर हँसी आ गई। गाड़ीवाला थोड़ा सकपकाया और बोला कि क्या मतलब? आंटी जी ने पूछा कि तुम्हारी आँखें ठीक हैं? उसने कहा-हाँ। आंटी जी बोली कि बेटा, मुझे नहीं लगता कि तुम्हें ठीक से दिखता है। मेरे दोनों हाथों में सामान देखकर भी तुम मुझे इन्हेें (आँखों से नीचे थैलों की ओर संकेत करते हुए) हटाने के लिए कह रहे हो। यह सुनकर गाड़ीवाले को जाने क्या सूझा कि वह पैर से थैलों को धकेलने ही वाला था कि वह गरजी-ऐ! सब्ज़ी है इसमें, खबरदार जो पैर लगाया तो। तभी पीछे से एक स्कूटर सवार चिल्लाया कि ओ भाई! गाड़ी जल्दी निकालो, सारा रास्ता रोक रखा है। गाड़ीवाला अच्छा फँस गया बड़ी गाड़ी लेकर वापस पीछे जाने में खतरा है और आगे आंटी जी। आंटी जी तटस्थ भाव से खड़ी थी। कोई चारा न देखते हुए उसने आगे बढ़कर स्वयं दोनों थैले उठाकर साइड में रख दिए और चला गया। आंटी जी ने एक रिक्शा रोका और उस पर अपना सामान लदवाकर चलने को हुई तो रिक्शेवाला बोला कि आंटी जी अगर आप पाँच मिनट रुके तो मैं बच्चों के लिए संतरे खरीद लाता हूँ। आंटी जी ने 'हाँ' में सिर हिला दिया पर रिक्शेवाला अभी भी उन्हें देख रहा था। तब उन्होंने उसे भरोसा दिलाते हुए कहा कि बेफिक्र होकर जाओ, मेरे होते तुम्हारे रिक्शे को कुछ नहीं होगा। यह सुनकर वह मुसकराते हुए चला गया।

Sunday, April 14, 2019

An Invigilation Day

Room No : ........
कक्षा IX - कैमेस्ट्री,    कक्षा IX - गणित
कक्षा VIII - कंप्यूटर,  कक्षा VI - सामाजिक विज्ञान

स्कूली परीक्षा के लिए चालीस छात्र एक कमरे में बैठाना वह भी चार अलग-अलग कक्षाओं के दस-दस छात्रों को जाने किस खुराफाती दिमाग की उपज है। उस पर क्या मेल करके बैठाया है। ग्यारहवीं कक्षा के लड़कों के साथ आठवीं की लड़कियाँ और नौवीं कक्षा की लड़कियों के साथ छठी के लड़के। बड़े हो या छोटे लड़के बिना बवाल किए नहीं रहते। परीक्षा ठहरी तीन घंटे की। आरंभिक डेढ़ घंटा परीक्षा की औपचारिकताओं एवं विद्यार्थियों के आत्ममंथन का होता है। यह समय हर निरीक्षक के लिए सुकून भरा या कहें कि नींद भरा होता है क्योंकि सारे परीक्षार्थी अपने में मग्न होते है, जिसे जितना आता है, करता है। कहानी तो मध्यांतर के बाद शुरू होती है। आठवीं कक्षा की कंप्यूटर की परीक्षा समय से पहले ही समाप्त। यानि तीन घंटे का पेपर डेढ़ घंटे में पूरा। वह भी एक, दो नहीं पूरा आठ छात्राओं का। प्रश्न-पत्र तैयार करने वाले को थोड़ा तो परीक्षक का भी ध्यान रखना चाहिए था। छात्र केंद्रित शिक्षा व्यवस्था की यही सबसे बड़ी समस्या है। अब छात्राओं का समय कैसे गुज़रे। उधर छठी के लड़के भी ताक में हैं कि कब मौका मिले और कुछ मदद मिले। किसी को प्रश्न-पत्र मेज़ से नीचे गिरने के लिए तो किसी को पैन से आवाज़ करने के लिए मना किया जा रहा है। इनके चेहरों और हरकतों से लगता है कि इनके लिए सामाजिक विज्ञान, ज्ञान का नहीं सिर दर्द का विषय है। कितनी बार डाँटा पर असर नहीं। सामने की पहली सीट पर बैठा ग्यारहवीं का छात्र अपना पेपर छोड़कर साथ बैठी आठवीं की छात्रा को जाने क्या समझा रहा है पर वह कोई रुचि नहीं दिखा रही, बेचारी मुँह बनाकर बस जुनियर होने के नाते उसे झेल रही है। जी में आया कि उससे कहूँ बेटा टीचरगिरी छोड़कर पेपर पूरा करने पर ध्यान दे। जब वह नहीं मानता दिखा तो यहाँ हस्तक्षेप करना आवश्यक हो गया। मैंने छात्र से पूछा कि क्या हो रहा है तो उसने न में सिर हिला दिया। मैंने हिदायत दी कि अपने पेपर पर ध्यान दो तो तपाक से बोला, हो गया। मैंने पूछा-पूरा, उसने फिर न में सिर हिला दिया और मुसकराकर बोला कि तीन प्रश्न नहीं आ रहे, आप थोड़ा बता दो, मैंने उसे घूरकर देखा तो उसने सिर झुका लिया। साथ बैठी लड़की को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ा, वह बैठी-बैठी ऊब रही है। आखिरी सीट पर बैठा छात्र लिखते हुए खड़ा हो गया। मैंने उसे बैठने का संकेत किया तो वह बैठ गया। जब दूसरी बार वह खड़ा हुआ तो मुझे लगा कि शायद वह कुछ गड़बड़ कर रहा है। मैंने उसे डाँटते हुए कहा कि तुम नकल कर रहे हो क्या। उसने घबराकर कहा कि नहीं। मैंने उसके हाथ से नक्शा लेकर देखा, वह कोरा था, शब्द तो दूर कहीं पेन्सिल का कोई निशान तक नज़र नहीं आया। आंसर शीट भी देखी पर नकल जैसा कुछ नहीं दिखा। मेरा संदेह व्यर्थ निकलता देख मैंने कहा कि तुम खड़े क्यों हो जाते हो? उसने कहा कि खड़े होकर लिखने से लिखने की गति तेज़ हो जाती है। मैंने साथ बैठी छात्रा को उम्मीद भरी नज़रों से देखकर कि शायद वह मेरा साथ दे, पूछा कि तुम्हें इसके खड़े होने से कोई परेशानी है पर उसने भी न में सिर हिला दिया। अब करना क्या था मैंने लड़के खड़े न होने के निर्देश के साथ बैठने को कहा। सामने से दायीं ओर तीसरी सीट का दृश्य कुछ अलग है। ग्यारहवीं का छात्र अपनी कमिस्ट्री की परीक्षा में रमा हुआ है, वह इतना रमा है कि लिखते समय उसकी उंगलियों के साथ मुँह भी 35 डिग्री तक टेढ़ा हो जाता है। इसे देखकर लगा कि कहीं तेज़ी से लिखते समय मेरा मुँह भी...इस पर ध्यान देना पड़ेगा। साथ बैठी छात्रा उसके पेपर में ताँक-झाँक कर कही है और यह करते हुए वह आधी से ज़्यादा सीट घेर चुकी है, मुझे डर है कि कहीं यह थोड़ा और आगे खिसक गई तो वह बेचारा गिर ही न जाए। तभी नौवीं की एक छात्रा साथ बैठे हुए लड़के पर चिल्लाई कि ठीक से बैठ, अबकी बार हिला न तो देख। मैंने पूछा कि क्या हुआ तो उसने बताया कि कब से यह हिल रहा है, कभी दायें तो कभी बायें, मैंने इसे ठीक से बैठने के लिए कहा पर यह मान नहीं रहा, मेरा पूरा डायग्राम खराब करवा दिया है। मैंने लड़के से पूछा कि क्या बात है? ठीक से बैठा नहीं जा रहा। उसने कहा मैम मैं तो ठीक से ही बैठा हूँ, बस मेरे हाथ से दीदी की शीट हिल गई। मैंने उसकी आंसर शीट ली और खोलकर देखा तो बहुत कम प्रश्नों के उत्तर ही लिखे थे। मैंने उससे कहा अभी तो बहुत से प्रश्न रहते हैं, करते क्यों नहीं, अब क्या किताब लाकर सामने रखी जाए, तब करोगे। उसने धीमे से हँसते हुए कहा कि मैम मेरा लिखने का मन नहीं है। यह सुनकर गुस्सा तो बहुत आया कि बेचारे अध्यापकों का रिज़ल्ट खराब करने की हद ही हो गई। फिर उससे पूछा कि जो लिखा है, उससे पास हो जाओगे तो उसने हाँ में सिर हिला दिया। एक छात्रा अतिरिक्त शीट और बाँधने के लिए धागा लेने के लिए आई। मैंने उससे पूछा तुम्हारा तो कंप्यूटर का पेपर हो गया है, फिर ये किसलिए चाहिए? उसने अपने साथ बैठे लड़के की ओर संकेत करते हुए कहा कि भैया ने कहा है, लाने के लिए। मैं समझ गई कि यह खुद भी खाली बैठे परेशान हो गई होगी और अब सीट से उठने का मौका मिल गया है। मैंने उसे कहा कि तुम जाओ, जिसे चाहिए, वह स्वयं आकर ले। वहीं दूसरी ओर छठी का एक छात्र नक्शेे को आंसर शीट के बीच में रखकर उन्हें धागे से बाँधने के लिए पेन से छेेद करने की नाकाम कोशिश कर रहा है। साथ बैठी छात्रा समझ गई कि यह काम उसके वश का नहीं है। उसने उसके हाथ से आंसर शीट ली या कहें कि लगभग छीन ली और प्रकार (कंपस) से उसमें छेद करके धागे से बाँधकर फिर से अपने सवालों में उलझ गई। मैं खुद हैरान हूँ कि इन बच्चों ने तीन घंटे की परीक्षा में मुझे कितनी कहानियाँ दे दी हैं।

Tuesday, April 2, 2019

गज़ब आंटियाँ-2

आंटी 3  - दिल्ली की लो फ्लोर बस सवारियों से ठसाठस भरी थी। उस पर भी हर स्टॉप से लोग बस में सवार होते जा रहे थे। रूट बहुत लंबा था तो ज़्यादातर सवारियों की कोशिश यही थी कि कैसै भी करके बैठने के लिए सीट मिल जाए। ज़्यादातर महिलाएँ आरक्षित सीटों पर ही बैठने की कोशिश करती हैं। एक आदमी पहले से महिला आरक्षित सीट पर विराजमान था और उसने अपनी आँखें जान बूझकर बंद कर रखी थीं या वह सच में सोया था, यह वही जाने। एक लड़की ने उस आदमी को उठने के लिए कहा तो उसने पहले लड़की को देखा फिर इधर-उधर नज़र घुमाई और आँख बंद करके सो गया। तभी भीड़ में खड़े होने के लिए जगह बनाती हुई एक लंबी व पतली आंटी जी उस आदमी से बोली बेटा तबीयत खराब है क्या? पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। तब आंटी जी उस लड़की को लगभग डाँटते हुए ऊँचे स्वर में बोली, अपनी आँखों की जाँच करा लो, तुम्हें ठीक से दिखता नहीं है, चश्मा लगाया करो। लड़की को उनकी बात अखरी पर इससे पहले कि वह कोई जवाब देती, आंटी जी फिर बोली कि लेडिज़ सीट पर लेडिज़ ही बैठती है। ध्यान से देख यह आदमी नहीं औरत ही है। केवल दिखने और वेशभूषा से कोई आदमी थोड़े होता है। आदमी होता तो लेडिज़ सीट पर क्यों बैठता? पक्का यह औरत ही है। आंटी जी की यह बात सुनते ही उस आदमी ने आँखें खोली तो उन्होंने ऊपर लिखे केवल महिलाएँ की ओर संकेत किया और बोली बेटा तुम लेडिज़ ही हो न। सोने का नाटक करने वाला वह आदमी सीट छोड़कर खड़ा हो गया। वह समझ गया था कि उनके कटाक्ष के सामने उसका अभिनय बेअसर है। सीट खाली होने पर लड़की ने आंटी जी को बैठने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि तुम थकी हुई लग रही हो इसलिए बैठ जाओ। तभी पीछे से कंडक्टर महाशय, जो अब तक चुप थे, उनकी आवाज़ आई कि बस में बहुत भीड़ है। यह तो लड़की है, खड़ी हो जाएगी। आप बुज़ुर्ग हैं, बैठ जाइए। आंटी जी झट से उससे बोली कि आजकल का जो खानपान है। उसके हिसाब से बुड्ढे-जवान सबकी सेहत एक जैसी है। उनकी इस बात पर सब हँस दिए। आंटी जी का बड़बोलापन, तेज़ दिमाग और हाज़िर-जवाबी देखकर मेरे मन ने कहा वाह! क्या बात है।